आज भी
भूला नहीं “वो” चेहरा
टकरा गई थी, प्लेटफार्म पे
घबराई नज़रों से
सहमी सी-
देख रही थी जाती हुई रेलगाड़ी
मैनें पूछा –
क्या हुआ ?
वह रो पड़ी
साथ मेरे घर आ गई
ना जाने
किस भरोसे से
मां के गले लग सुना दी “सब दास्तां”
और –
सुबह मैं छोड़ आया
जाते -जाते
थमा दिया मुझको
एक कागज़ का टुकड़ा
“मैं ” देखता रहा दूर तक जाते उसे
एक संदेश था
उसकी आंखों में
कागज़ का टुकड़ा उड़ गया
ना जानें क्यों -?
रोज कदम मेरे अनायास
प्लेटफार्म पे जाने लगे
रोज़ आती “रेलगाड़ी” देखता रुकने तक
४० वर्ष बाद
“रेलगाड़ी” _आज फिर रूकी
एक क्षीणकाय वृद्धा
मेरे सामने थी
मुझे पता था-
यहीं मिलोगे
तुम ,,,,अब आई ?
तुम्हारा इंतज़ार करता रही,,,
और -मैं तुम्हारा,?
मैंने पता दिया था कागज़ पे
वो कागज़ का टुकड़ा!!
वो तो उड़ गया था
क्या ,,,या,,या,,,! ! !
वह मेरी बाहों में थी
अपलक निहारती
प्राण पखेरु उड़ चुके थे ,,,,
रेलगाड़ी चली गई,,,,
रति चौबे
How useful was this post?
Click on a star to rate it!
Average rating 0 / 5. Vote count: 0
No votes so far! Be the first to rate this post.