उस गली से अरसे बाद गु़ज़रा,
कहीं भी कुछ ख़ास तो न बदला
पर क्या वाक़ई कुछ नहीं बदला???
नहीं भई नहीं ! कुछ तो है ज़रूर बदला,
इसी गली के उस छोर पे था
कभी मेरा भी आशियाना,
बचपन से जवानी के दिनों तक,
था मेरा भी वही ठिकाना,
याद आती हैं बेफ़िक्री की वो सुबहें ,
पुरसुकून शामें और तारों भरी रातें ,
गर्मी में छत पर देर रात तक जगना,
लेट कर बतियाना,सितारों को
तकना,
लड़के मसरूफ़ हैं ,
सड़क किनारे किसी खेल में,
नुक्कड़ पर बैठा बूढ़ा रफ़ूगर,
रफ़ू कर रहा हमारे सपनों को,
सडक के पार की चाय की दुकान,
बड़े से रेस्त्राँ में बदल गई है,
जहाँ पर खड़ी लड़की,
किसी की बाट जोह रही है,
यहाँ पर कोई मुझे अब नहीं पहचानता,
पर मैं जब कभी यहाँ से ग़ुज़रता
हूँ,
आँखें छलछला उठती हैं मेरी,
जब गु़ज़रा ज़माना याद करता
हूँ,
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