एक पंथ दो काज
उमर जी़ना-जी़ना बढ़ रही है।
ख़ामोश, संपूर्ण सन्नाटे में,
छन-छन का शोर पसरा हुआ,
और आँखे बिल्कुल पत्थर की भाँति स्थिर,
भूल गयी है पलक झपकाना।
पूरे आवेग व आवेश से छेनी-हथौड़े की मार जैसे,
जीवन का असहनीय सुर-संगीत बन गया हो,
पत्थर तोड़ते-तोड़ते पत्थर की गंध,
रच-बस गयी है उस की देह में,
पर,
खीझ, तिलमिलाहट, आक्रोश की झलक नहीं।
पीड़ाग्रस्त हो कर भी काम में मग्न, स्त्री
बूँद-बूँद पसीना बहा रही है, पेट भरने के लिए,
क्योंकि वो जानती है……हाँ, जानती है….
स्त्री,
भगवान की सबसे श्रेष्ठतम कलाकृति में से एक है।
भगवान ने उसे अद्भुत क्षमता दी है,
अपना पेट भर कर……अपने शिशु का पेट भरने की।
इसलिए, वह खाती है खाना, और करती है अपने
बच्चे के भोजन का प्रबन्ध,
जब रगो में बहता रक्त बन जाता है क्षिर-अमृत, क्षिर ( दूध)
उस के स्तन से उतरता है बालक के पेट में,
उससे मिलने वाला आत्मीय सुख व असिम शांति की अनुभूति, संसार के सारे सुखों को ताक पर रखने
के बाद भी नहीं मिल सकती।
और फिर वह हो गयी विलीन अपने शून्य में।
छेनी-हथौड़े के साथ।
आभा….🖋
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