न भूत हुं,न अतीत हुं।
न प्रेत हुं,सिर्फ अभिप्रेत हुं।
न छाया हुं,न माया हुं।
मैं अपना ही तो काया हुं।
क्या डर है? मैं पर नहीं।
मैं हुं अपना ही परछाई।
मैं सपना नहीं,अपना ही तो हुं।
भूत नहीं,बर्त्तमान में मैं हुं।
भूत है क्या, यह तो बता दो कोई जरा।
तुम्हारे अंदर जो खड़ा है लड़खड़ा!
बिन चमड़ी , सिर्फ़ एक खोपड़ी!
बिन मांस, सिर्फ दांत ,न कोई माढ़ी।
अगर कोई उसे भूत कहें,
जो अपने साथ हर पल रहें।
अपने साथ तो वह घुम फिरें।
भूत कह कर हम क्या उसी से डरें?
हर प्राणी का शरीर उसी से बना।
हड्डियों का ढेर है,डरना मना।
अगर कंकाल को हम भूत कहें,
भूत बंगला हम अपने आप को कहने से रहें।
मन में अगर न हो कोई दुष्ट शैतान।
जीवन है आसान, एक मधुर मुस्कान।
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