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डॉ. आराधना सिंह बुंदेला । (विधा : कविता) (आकाशगंगा | सम्मान पत्र)

कृष्णा माटी खाकर तुम छुप गए ,
मैया यशोदा के डर से जब ;
माँ ने पकड़ा और जो झिड़का ,
मुस्का कर मुख खोला तब ;

क्या चाँद, क्या तारे ,
नक्षत्र यहाँ सारे ;
अनंत ब्रम्हांड और अनेक सूर्य,
विस्तृत और विशाल आकाशगंगा ;

भोली मैया ये देख कर ,
मूर्छित हुई अचानक जब ;
ये मेरा लाल साधारण नहीं ,
ये अखिलेश है वो जानी तब ;

अनंत आकाशगंगाओं का ,
ये उद्गम है और अंत भी ;
ये विशाल भी , ये सूक्ष्म भी ,
ये भीतर भी , ये बाहर भी ;

ये जल में भी ये थल में भी ,
ये वायु में , ये अग्नि में ;
ये जड़ में है और चेतन में ,
ये है धरती में और आकाश में भी ;

माँ की अश्रु धारा बह चली ,
प्रभु बाल सुलभ फिर से हुए;
माँ को उठा कर हृदय लगा ,
आकाशगंगा के फिर एक कंड़ हुये ।

@डॉ आराधना सिंह बुंदेला

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