ये किस युग की सङक है कौन सा है गाँव
दुबले पतले पेड की दुबली सी छाँव
सङक किनारे खेलते नवयुवक,
ना सेलफोन की लत ना सेल्फी की ललक
युगों पहले लोग कूछ यूँ थे रहते
बिन सेलफोन के वो बेफिक्र बहते
सङको पर लङके लङकीयो देखते
तिरछी नजरों से अपने अरमाँ सेकते
न मोबाइल था ना सोशल मिडिया
सेल्फी न थी पर फिरभी सुंदर थी छोरियां
सङक किनारे की छोटी सी होटल
चाय थी मिलती या कोला की बोतल
घंटो कीसी की राह तकते
उसके ही ख्यालों मे उलझे रहते
बिन मोबाइल जाने वो कैसे रहते
क्या जाने अपनी दिल की वो कैसे कहते
हम मोबाइल युग के है भाई
क्या जाने कोयल कब हैं गाई
आंख उठाकर देखते नहीं
विन मोबाइल दूनियाँ थी नहीं।
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