प्रेमियों को, मोहब्बत ने कितना विवश निर्बल देखा।
फिर भी राहें-इश्क चलते मुसाफ़िरों का दल देखा।।
सांसारिक सुख को तुच्छ बताने वाले पैग़म्बर को।
साधारण लोगों की तरह इश्क में, होते पागल देखा।
सूरज सोख चुका था धरती का सारा पानी जब।
अब्सार से अपने अविरल छलकता जल देखा।
पागल है इश्क कही उन्हें देख फिर मचल न जाए।
खुद्दार मुहब्बत को पास रखने का गरल, मनोबल देखा।
चारों मौसम सजाते है धरा को अपनी-अपनी तरह।
हर बार उन्हें आते – जाते पर एकल देखा।
अमीर – ग़रीब का कोई फ़र्क़ न था क़ब्रिस्तान में।
हर क़ब्र के पास उगा कँटीला जंगल देखा।।
बद से बदतर हो जाती है “आभा” जहाँ जिंदगी।
वही अक्सर इश्क को होते मुक़म्मल देखा।।
अब्सार – आँखों का बहुवचन
गरल – विष, ज़हर
मुक़म्मल – संपूर्ण, समाप्त
आभा….
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