एक हद होती है, किसी इल्तिज़ा की,
हर बार, गिड़गिड़ाया भी, नही जाता।
बुत सा चुप रहना, कैसी है सियासत,
मन्नत बेअसर, अब कोई नही सुनता।
तेरी देहरी आते जाते, ऊमर बीत गई,
इंकलाब, शोर से जियादा नही होता।
क़ैसी है शिकायत,शिकवा करुँ कैसा,
खुदकी जुबाँ का भी,यकीं नही होता।
सहता रहा,मजबूरियाँ आदत बन गई,
दर्द दोस्त बन,अबहै हिफाज़त करता।
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