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एक अनसुनी पुकार

एक अनसुनी पुकार

एक अनजान दुनिया देखने का
बेसब्री से था इंतज़ार मुझे
चंद महीनों से महफूज थी मै
मेरी प्यारी माँ की खोक मे।।

माँ की मधुर और खिलखिलाती हँसी
सुन रोमांचित हो उठती थी मैं
उनकी कोमल स्पर्श और भावनाओं को
दिल से महसूस करती थी मै।।

आयी एक सुबह उदासी भरी
जब इंसान बना फिर से हैवान
मै  थी कन्या भ्रूण यह जान
निश्चित मेरी मौत, लिया उसने ठान।।

बेरहमी से  उसने करी अनसुनी
एक बेबस माँ की दहकती पुकार
अहंकारी और ताकतवर इंसान ने
मिटाया मुझ अजन्मी का नामोनिशान।।

मुझ बेकसूर की है इतनी फरियाद
अंत करो इंसान यह अत्याचार
नतमस्तक होकर करते देवी माँ को प्रणाम
फिर क्यों मिटाते हो कन्या भ्रूण का निशान?

बेटी है इश्वर का अनमोल वरदान
घर आंगन की है वह शान
ममता, खुशी और सहनशीलता का प्रतीक
इसकी प्रगति मे है देश की जीत।।

बेटा सहारा, बेटी जीवनभर एक भोज
बदलो इंसान अपनी यह पुरानी सोच
समानता से करो कन्या और नर भ्रूण को स्वीकार
दोनो को है दुनिया में जीने का अधिकार।।
दोनो को है दुनिया में जीने का अधिकार।।

पद्मा

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