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उत्सव

उत्सव क्या है?पूछा इक दिन “निराशा” ने।
बोली “आशा”प्रत्युत्तर में।
जगत जहाँ तुम्हे छोड़,मुझे अपनाता है।
फ़क़त, वो ही पल,उत्सव बन जाता है।
माना तुम हो,प्रिय सखी मेरी।
पर मैं दुनिया की प्रिय हूँ!ऐ सखी मेरी।
फिर भी तुम विशाल हो,तुम्हें चाहता है ये संसार।
तभी तो,छोड़ मुझे,तुमसे घिरा रहता है,ये संसार।
जानता है, तुम नहीं जानती अर्थ “उत्सव”के।
फिर भी सब रहते हैं, हर पल,घेरे में “निराशा”के।
तुम्हारे पीछे-पीछे चलना,नियति है मेरी।
जब आ जाती हूँ,आगे तुम्हारे,वो पल,ऐ सखी!
“उत्सव”हैI।
तुम गहन तम हो,मैं हूँ दीया, दिवाली का।
तुम हो रंग दुखों का, मैं इंद्रधनुष हूँ,होली का।
माना तुम वृहद रूप हो,विषाद का।
पर मैं हूँ”उत्सव”प्रति स्वांस का,जीवन- विश्वास का।

अरूणा शर्मा

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