तड़प रहा था आसमां
तप रही थी वसुंधरा
घुमड़ घुमड़ कर तुम जो आए बदरा
अनोखा उन का मिलन हुआ
सरिता का भी सिकुड़ रहा था दामन
इठलाती अब वो फिर रही
घुमड़ घुमड़ कर तुम जो आए बदरा
तरु भी मदमस्त हो ,लहरा रहे
चपला भी चमक कर रोशनी बिखेर रही
धरती पुत्र किसानों कि भी आंखें चमक उठी
घुमड़ घुमड़ कर तुम जो आए बदरा
प्रकर्ती सारी सुगंधित हुई
कल तक थी तो आवारा उड़ ती फिर रही
मिट्टी वो तेरे स्पर्श से सौंधी हुई
घुमड़ घुमड़ कर तुम जो आए बदरा
धरती ने हरी चुनार ओढ़ ली
इक संदेशा बरखा कानों में दे गई
गर्मी इस दुनिया में किसी की रहती नहीं
घुमड़ घुमड़ कर तुम जो आए बदरा
नवजीवन फिर अंकुरित हुआ
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