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अरूणा शर्मा (UBI धरती माँ प्रतियोगिता | सम्मान पत्र (कविता))

माँ वसुंधरा:-

“अरे नहीं!!नहीं,अब बस करो!!”

वो रोने लगी।अब तो चिल्ला पड़ी।

मगर……बड़े निर्दयी हैं सब।

कोई नहीं सुनता।किसी को न इसकी पड़ी।

एक आई।फिर दूसरी।फिर एक और।

चलता रहता है यही,यहाँ-वहाँ, चारों ओर।

“अरे,अरे!!ज़रा रुको!!”

इस बार उसकी आवाज़ और धीमी थी।

अपने अपनों से ही, वो अब सहमी रहती थी।

रुक जाए अब भी जो,पास उसके वो अश्रुधार नहीं थी।

आख़िर अपने ही बच्चों से वो हार रही थी।

घुटती-दबती साँसों मेंआज फिर उसने कुछ देखा।

“अब तो मुझे रौंदने के लिए,लेते-देते हैं,ये ठेका। काश!कोई तो ऐसा हो,जो समझे मेरी पीड़।

अरे नादानों!!मैं जो रूठी तो नहीं रहेंगे,तुम्हारे नीड़।”

अब हो आई उसकी सहनशीलता की पराकाष्ठा।

सज़ा देने के सिवा, बचा ना कोई,उसके पास रास्ता।

लाद दिए हैं जो पहाड़,उसके सीने पर तुमने।

कर दिया जो आँचल उसका,मलिन तुमने।

अब वो हो चुकी,पूर्णतः अशांत।

तुम्हें सुनाने को हो गई है तैयार, तुम्हारा ही गाया वृत्तान्त।

फूट पड़ा अब क्रोध माँ का।देखो अब रौद्र रूप तुम माँ का।

झेलो अब ज़लज़ले और तूफान।सहो,मचाया जो अब तक तुमने कोहराम।

तुम्हें दया ना आई,मानवों!!अब बारी है,धरती माँ की,ऐ दानवों।

अब तो सुनामी और कभी फ़ानी।यही रूप दिखाने की माँ ने है ठानी।

वक्त है अभी।अब भी सम्भलो।माँ के उपकारों का कुछ तो मोल दो।

स्वार्थ अपने रखो ताक पर।देगी प्यार माँ,तुम्हें फिर जीवन भर।

त्यागो पॉलिथीन और रासायनिक खाद।आता है फिर देखो,जीवन में फिर से कैसा स्वाद।

स्वच्छता का पढ़ लो पाठ।धरती माँ कर देगी फिर से,बहुतेरे तुम्हारे ठाट।

वट-पीपल को पूजा सदा।पूर्वजों ने लिया जीवन का मज़ा।

आओ,आओ हम भी चलें।थोड़ा-सा मुड़कर देखें पीछे।

माँ उठाएगी सिर ऊँचा ऐसे,कि देखना ना पड़े फिर कभी नीचे

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