लता!मेरे देखते-देखते ही कितनी बड़ी हो गई है।
इठलाती-बलखाती, नन्ही-सी लता अब मेरे गले लग गई है।
जंगल की सैर करने निकलती हूँ मैं, सुबह-सुबह जब।
बूढ़ा बरगद यही सोच-सोच,इतरा रहा था तब।
बाबा के साथ-साथ लगी मुझे भी सुबह की सैर की लत।
आज जब देखती हूँ चारों ओर तो, डर से हौंसला हो जाता है,पस्त।
बाबा को था वृक्षों से प्यार,वृक्ष बचाने की धुन थी उन पर सवार।
पढ़-लिख ढूंढी नौकरी भी,शहर से दूर,घने जंगल थे जहाँ अपार।
दादा ने गाँव में थे,वृक्ष लगाए,उन पर सदा बाबा इतराए।
भाई-बहनों ने बांटा था हिस्सा, अपना-अपना वृक्ष थे वे चुन आए।
सबने अपने वृक्ष सम्भाले,बड़े प्रेम से पोसे-पाले।
मैं भी झूली,इन पर बचपन से,बाबा ने इन पर थे,झूले डाले।
देख,झूमती वृक्षों पर मुझको,नाम दिया था लता ही मुझको।
कोयल,बया और गौरैया, लोरी सदा थी सुनाती मुझको।
काली,पीली,नीली चिड़ियाँ, सुबह-सवेरे शोर मचाती।
अपनी मधुर कुहु-कुहु से,हम सबको थी नित्य जगाती।
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अरे!!ये क्या मैं देख रही हूँ,गहरे जल में डूब रही हूँ!!
लता बरगद से थी जो लिपटी,उसको कटते देख रही हूँ!!
मचा हुआ है, हाहाकार, वृक्ष कर रहे हैं चीत्कार!!
हमें ना मारो,हमें ना काटो,रो-रो करते हैं, वे पुकार!!
एक गिरा,दूजा भी आकर,रोया धरती माँ से लिपट कर!!
हुई तभी इक भयंकर गर्जना, जल-मग्न हुआ धरा का हर इक कोना!!
पानी-पानी हो,मैं थी जागी, था ये स्वप्न, फिर भी मैं भागी!!
जंगल जिनके घने मित्र हों,होते हैं, वे बड़े “बड़भागी”!!
बूढ़े बरगद पर लिपटी लता,बताती है, मेरे बचपन का पता।
नाम दिया था जो बाबा ने,बनाऊंगी उसको अब अपना पता।
जंगल पर मेरे आँच न आये,कोई इसे ना कभी सताए।
चलूँगी, अपने बाबा की राह,जंगल की लता कह,सभी सदा बुलाएं।
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