#UBI #Valentinesday
नहीं मैं नहीं ले सकती तुमसे ये फूल। नहीं स्वीकार कर सकती हूं तुम्हारे प्रणय निवेदन को अमन–मैं मजबूर हूँ।
क्यों? आज इस प्रेम दिवस पर तुम मेरा निवेदन नहीं स्वीकार रही हो तो क्या मैं समझूं कि तुम किसी और के प्रेम के इंतजार में हो।
नहीं नहीं अमन मत लगाओ इतना बड़ा इल्ज़ाम मुझपर। मैने सदैव अमन की ही कामना रखी है अपने दिल में। मगर मैं क्या करूँ कैसे बताऊं कि अब मैं तुम्हारे लायक नहीं रही अमन।
पिछले दिनों जब तुम छुट्टी पर चंडीगढ़ गए थे यहां बाॅर्डर पर आतंकवादियों ने हमारे गांव पर हमला किया और गांव की कुछ लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया। मैं बदनसीब भी उनमें से एक थी अमन–अब तुम्ही बताओ अमन पैरों तले कुचला रौंदा गया फूल क्या ईश्वर पर चढता है कभी?— कहते कहते फूट फूट कर रो पडी वह स्नेहवंचिता।
एक क्षण के लिए अमन सकते में रह गया मगर दूसरे ही क्षण उसके भीतर का फौजी सुरक्षा प्रहरी जाग गया।
सुबकती हुई निर्दोष धरा को गले से लगाते हुए उसने बस इतना ही कहा जो उसके प्रेम की अमिट सच्चाई थी, – – “धरा इन आतंकवादियों के नापाक कदम हमारी धरती पर पडते हैं तो क्या हम अपनी धरती को नापाक मानते हैं – – नहीं ना? फिर उन वहशी दरिंदों की नापाक हरकत से भला तुम कहाँ मैली हुई– तुम तो इस पावन धरा की तरह पावन हो जो सदा अमन की चाहत रही हो– भूल जाओ सब कुछ – – तुम मेरी हो सदा के लिए—अब उन वहशी दरिंदों के लिए मेरी बंदूक की गोली और भी निर्मम हो जाएगी देखना तुम।”
– – – और प्रेम दीवानी धरा की आंखें निर्निमेष सी न्यौछावर होतीं रहीं अमन की पावन चाहत में— उस अपरिभाषित प्रेम दिवस पर।
हेमलता मिश्र मानवी
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1 Comments on “अमनधरा”
Very nice , sabko gahanata se ye baat sochni chaiye.