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अनु साहनी ( भूत बंगला प्रतियोगिता | सम्मान पत्र )

जो खौफ बचपन में भूतों से होता था कभी, देखकर ‘इंसान’को, अब कोई ‘भूत’ डराता नहीं।

भूतों का साया,न अब सताता है कभी ,
पर इंसान के वार से सहम जाते हैं सभी।

इंसान कम हैं मेरे शहर में,भूत ही भूत नज़र आते हैं।
घर से निकलो , तो हर मोड़ पर यमदूत नज़र आते हैं।

भूतों की नगरी में भी अब ,चर्चा चल रही है इंसानों की,
धूम मची है इनके भयानक किस्सों व रंग बदलते ईमानों की।

देखो फितरत ज़रा इंसान की, कभी तहज़ीब बदलते हैं, तो कभी रंग बदलते हैं,
चंद हसरतों के लिए ,यह अपना ईमान बदलते हैं।

चोरी, झूठ, हिंसा और कपट से छलता है यह इंसान,
मक्कारी देख इंसान की, हो रहे ‘भूत’ भी हैरान।

तीखी बातों से अपनी , यह गहरे ज़ख्म देता है,
हैरत है कि बेगैरत ,यह कितने रंज देता है।

‘भूत’ भी हैं खौफ में , इन ज़िंदा भूतों को देखकर,
बेबाक जश्न मनाते हैं जो, किसी के अरमानों को रौंदकर।

भूत , पिशाच या प्रेतों से, मैं नहीं डरता हूँ ,
मैं तो इंसान हूँ, बस इंसान से ही डरता हूँ।

मानवता को मत भूलो , मत भूलो क्यों आए इस भू पर,
इक तवज्जो चाहिए ,इंसान को इंसान पर।

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