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सोनिया सेठी ( समय प्रतियोगिता | युगान्तकारी रचना हेतू प्रशंसा पत्र )

आज सोचती हूँ, काश उस समय कह लेती,
उन उमड़ते जज़्बातों को हवा दे देती।
कशमकश में ही जिंदगी बिताई ना होती,
जो उस दिन बात मैं अपनी कह पाई होती।

लिहाज, लोक-लाज की उलझन में रही,
फिर भी कहाँ कुछ सुलझा पाई।
मन की मन ही में रह गई,
चुप भी रही और सह भी नहीं पाई।

समय सबकुछ ठीक कर देता है,
सुनती आई हूँ, सब झूठ है।
कुछ घाव ऐसे भी होते हैं,
जो समय बीत जाने पर भी नहीं भरते।

मत कुरेदो उन बातों को,
मत छेड़ो उन जख्मों को।
वो जख्म आज भी हरे हैं,
उनमें अब भी उतनी ही टीस उठती है।

जानती हूँ, बीता समय नहीं लौटेगा,
ना ही जो पीछे छूट गया वो लौटेगा।
फिर भी कैसी जिद है इस पागल दिल की,
इंतजार भी करता है और उम्मीद भी नहीं।

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