मेरे भीतर पनप गई इक
जालिमों की बस्ती
जहां ना जाने कबसे
आ बसे थे कई
नजर अंदाज किए जज्बात
दबे कुचले छटपटाते अरमान
अनकही शिकायतों की घुटन
बाणों सें तीखे शब्दों की चुभन
पीठ में घुपे खंजर से रिसता घाव
टूटे सपनों के कराहते अवशेष
और सुलगे आक्रोश
मचता था वहां
असह्य नीरव कोलाहल
जो करता सदा बेचैन
बनाता जीवन को नरक
फिर अकस्मात ही दिल को
छू गई पीड़ा किसी पराए की
और फूट पड़ा सैलाब
अनबहे आंसुओं का
जो ढहा कर ले गया समुचित
जालिमों की बस्ती
और छोड़ गया शीतल
भीगी पलकें
3 Comments
It’s amazing
Very nice ending to touchy inner unrest….
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति ॥ जय हो ।