भाषा…..एक अनमोल उपहार
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साहित्य समाज का दर्पण,भाषा उसका रुप-शृंगार
भाषा मानवता के लिए ईश्वर प्रदत्त अनमोल उपहार।
आँखों की अपनी भाषा सब कह जाती है इशारों में
खामोशी की आवाज़ भी सुनाई दे जाती है हज़ारों में।
धरती बँट गई टुकडों में क्या बाँट पाएगा ये नभ इंसान
कोई देश हो,कोई भेष हो प्यार की बस एक ही ज़बान।
मौन की भाषा आँखें पढ़ लेतीं है, हो कितनी भी गहन
प्यार की भाषा सर्वोपरि, बिना बोले समझ लेता मन।
फूल क्या कहते हैं हमसे कभी सुनना उसकी भी व्यथा
वो हर जज़्बा बयान करती है, ये है भाषा की गुणवत्ता ।
अच्छी भाषा,सच्ची भाषा,गिरा देती है मज़हब की दीवार
भाषा वो कड़ी है जो दूरियाँ तय कर जोड़ती दिलों के तार।
भाषा मातृ तुल्य है जीवन में रस घोल देती इसकी रवानी
विरहिणी के मन की वेदना में बहती बन आँख का पानी ।
भाषा को कौन बाँध सका दायरों में , ये हवा सी है चंचल
भाषा नहीं कोई भेदभाव करती चाहे झोपड़ी या ऊँचे महल ।
हम कैसे कुछ कह पाते,गर ये नहीं साथ चलती बन हमजोली
ईद, दीवाली, क्रिसमस के रंग अनेक,पर ये है सबकी सहेली।
नवजात शिशु सी माधुर्य घोलती करती है निज गृह -प्रवेश
सबको सम भाव से आंकती हो कोई परिधान कोई परिवेश।
पराया भी गले लग जाता जब सुनता है प्यार की मीठी ज़बान
स्नेह और वात्सल्य की बोली सुनकर झुक जाता है आसमान
इसका अनादर है समतुल्य है जैसे हो निज जननी का अपमान
भाषा कोई हो,कहीं की हो हम इसकी पहचान नहीं,ये हमारी पहचान।
मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित(C) भार्गवी रविन्द्र.
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