प्रेम-प्रमाद से पुलकित हुई तो, इसमें मेरा क्या अपराध हुआ।
चित्त मेरा जो चंचल हुआ तो, जग में क्यों विवाद हुआ।।
अपने आप को अपने आप से, अपरिचित महसूस कर रही हूँ।
स्मृति में किसी की, क्षण-क्षण, वायू वेग सी बह रही हूँ।।
अवरुद्ध हो उठी ध्वनी, प्रियतम से, नीरव जब संवाद हुआ।
अस्तितत्व अपना खो बैठी, इसमें मेरा क्या अपराध हुआ।।
पतझड़ में कोयल सी कुहुकु तो, जग में क्यों विवाद हुआ।।
घूँट-भर प्रेम रस पिया नयनों से, जीवन उस में समा गया।
धमनियों में प्रसन्न कोलाहल सातों सुर सजा गया।।
ज्ञानेन्द्रिय गूँगी हो गयी, प्रेम से जब हृदय आबाद हुआ।
किश्तों में मुग्ध होती गयी, इसमें मेरा क्या अपराध हुआ।।
प्रेम पुकार की सत्यता पर, हरयुग क्यों विवाद हुआ।।
उमड़ पड़ा, हुआ व्याकुल यौवन, प्रियतम प्रियतम पुकार रही।
तुम्हारे स्पर्श से परिचित नहीं, नयन छुवन से सरोबार रही।।
समाना चाहूँ, बाँहों में, कैसा उद्वेलित उन्माद हुआ।
अधरों में जगी अनूठी प्यास, तो मेरा क्या अपराध हुआ।
काँपती लौ सा कंपकंपाए तन ,जग में क्यों विवाद हुआ।।
प्रेम-प्रमाद से पुलकित हुई तो, इसमें मेरा क्या अपराध हुआ।
चित्त मेरा जो चंचल हुआ तो, जग में क्यों विवाद हुआ।।
प्रमाद – नशा, मद।
नीरव – शब्दरहित, शब्द न करनेवाला।
उद्वेलित – अशान्त, उत्तेजित ।
उन्माद – पागलपन,
आभा….🖋