दिन हफ़्ते महीनें साल कुछ यूँ गुजार दिए
समय की बहती धारा में बरसों निसार किए
खुद की बनाते पहचान दिन रात किए बेहाल
तारीखों ने बदले कैलेंडर बदल गए कई साल
कल मन चाहा चलो कुछ श्रृंगार मैं कर लूँ
बदल रही जिंदगी, क्यूँ न बनठन सँवर लूँ
दर्पण देख मुझको मानो हँसी उड़ा रहा था
कोई अनजान खड़ा हो जैसे मुँह चिढ़ा रहा था
मैंने दबी हुईं सी आवाज़ लगाई उसको
सुनो मैं..मैं वो ही हूँ पहचानो तुम मुझको
थोड़ा ठिठका वो, थोड़ा रुक कर यह जतलाया
कल,आज में था फासला उसने जो दिखलाया
फिर तुनक कर उसने आवाज़ उठाई भारी
“ये क्या हाल बना रखा है”? कहना रखा जारी
मैं थोड़ा हिचकी ,थोड़ा सोचा और फिर बोली
हाँ है थोड़ी चांदी बालों में और थोड़ी मैं फूली
फिर बेख़ौफ़ हो मैंने दर्पण से आँख मिलाई
सालों की आपबीती उसको मिनटों में समझाई
तब समय की मांग थी क़ीमत उसको बतलाई
रोटी कपड़ा मकान यह अहमियत भी दिखलाई
दुःख में सुख में है जीना कैसे तुम यह लो जान
अपना कौन पराया कौन बस समय देता है ज्ञान
टिका न कोई जिसके आगे राजा न धनवान
बच्चे बूढ़े सब झुक जाए समय बड़ा बलवान।
How useful was this post?
Click on a star to rate it!
Average rating 1 / 5. Vote count: 1
No votes so far! Be the first to rate this post.
3 Comments on “प्रीति पटवर्धन ( समय प्रतियोगिता | युगान्तकारी रचना हेतू प्रशंसा पत्र )”
Very nice💐
Apt
Making a lot of sense
Good show
Keep it going
Apt
Making a lot of sense
Good show
Keep it going