‘उस गली में’
‘उस गली में’ देखो अपराह्न अफ्रा तफरी है,
कहीं पक्के मकान तो कहीं टप्री है;
जगमगाती बत्तियों से रात उजागर है,
चल रहा राहगीर संग संग बराबर है;
सड़क किनारे खिल रहा बचपन है,
कुलाटीया मार जवां हो रहा लड़कपन है;
किसी की उम्र की दिख रही है शाम;
तो कोई चल रहा बेपरवाह, सरे आम;
‘उस गली में’ देखो
ज़िन्दगी भर का सबब है;
ना समझो तो कुछ नहीं
और जो समझ जाओ तो ग़ज़ब है….
कहती है वो गली,
चलते चलो अपनी मस्ती में मगन,
ज्वलित कर स्वयं के दिल की अगन;
उम्र के हर पड़ाव को बखूबी निभाना है;
पुराने हिसाब को चुकाना और नए कर्मो को सजाना है।
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