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डॉ. हरविंदर सिंह गाँधी । (विधा : कविता) (एक पैगाम पिता के नाम | सम्मान पत्र)

हर एक पिता में, समझो तो, थोड़ी सी माँ भी होती है
वो पालन पोषण करता है , माँ जिस फ़सल को बोती है

शिशु के घर में आते ही , वो ज़िम्मेदार बन जाता है
खाना ख़ुद लाता हो पर , सबसे आखिर में खाता है
चंद दिनों में , लड़के से वो , एक पुरूष बन जाता है
कहीं कहीं विचरण करता था , समय से अब घर आता है
परिवार की ख़ुशियों को वो , ख़ुद के दर्द भुलाता है
खा थपेड़े दुनिया के , बच्चों को सुंदर घर बनवाता है
गोवर्धन बन जाता है वो , जब भी बारिश होती है
हर एक पिता में , समझो तो , थोड़ी सी माँ भी होती है

जश्न की तरह मनाता है , वो बच्चों के चलने को
ऊँगली थामे रहता है , लड़खड़ाए तो , सँभलने को
दिन भर मेहनत करता वो , क़िस्मतें उनकी बदलने को
सूरज भी बन जाता है वो , लगे शाम जो ढलने को
ठंडी रातें बन जाता वो , जीवन लगे जो जलने को
हर चीज़ ख़रीद वो लाता है , जो बच्चे लगे मचलने को
तकलीफ़ में गर बच्चा हो कोई , उसकी आँखें रोती हैं
हर एक पिता में , समझो तो , थोड़ी सी माँ भी होती है

किसी बात से बच्चे उसके , मायूस यदि हो जाते हैं
मन बहलाने को बच्चे , बस पिता की गोदी पाते हैं
किस किस जतन से बाप सभी , उनका जी बहलाते हैं
हर दर्द भुला कर दुनिया का , घर में मुस्काते आते हैं
ख़ुद की परेशानी कोई भी , वो घर में नहीं बताते हैं
फिर , बड़े होकर , वही बच्चे , पिता को भूल जाते हैं
बच्चों की याद में उसकी आँखें , फिर पत्थर सी होती हैं
हर एक पिता में, समझो तो , थोड़ी सी माँ भी होती है

डॉ. हरविंदर सिंह गाँधी

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