नि:संदेह ही , वो मुझे धोखा देकर ,बहुत संतुष्ट हुआ होगा
पर आत्मग्लानि की तपस ने , उसे कभी तो छुआ होगा
देख तो लिया था , तेरे हाथ में वादाखिलाफी का ख़ंजर मैंने
पर , मुस्कुरा कर मिला मैं , बदलने न दिया मंज़र मैंने
मेरे सच बोहनी भी न हुई , और उसका झूठ हाथोंहाथ बिका
झूठ के पाँव न सही , पर था वो मेरे यक़ीं पर टिका
वो मौक़ापरस्त था , मौक़ा ताड़ कर मुझे किनारे कर डाला
रिश्ते की चाशनी में , मतलब का ज़हर भर डाला
मैं विश्वास ही न करता , तो वो धोखा देता कैसे
वो तो शातिर था , वफ़ा का नाम लेता कैसे
मैंने यक़ीन के धागे में , दिल से पिरोई थी माला
उसने , एक धोखे से , तार तार कर डाला
पर , मैं वो हूँ , जो टूट टूट के , कई बार जुड़ा हूँ
खुदा की नज़र में अच्छा , उसकी नज़र में बुरा हूँ
धोखा खा कर भी , मैं ये ऐलान कर रहा हूँ
क़त्ल के सभी ख़ंजर , मैं झोली में भर रहा हूँ
जब मेरी आहों का तड़प , फलक से टकराएगी
तेरे भी पैरों के नीचे से , धरती सरक जाएगी
याद रहे , जब भी मैं जर्जर हो कर बिखरा हूँ
और बेहतर बना हूँ , और ज़्यादा निखरा हूँ
………….. डॉ. हरविंदर सिंह गाँधी
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