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डॉ आराधना सिंह बुंदेला। (विधा : कविता) (हीरा है सदा के लिए | सम्मान पत्र)

डॉ आराधना सिंह बुंदेला

नन्हा बालक जब दुनिया में आया ,
उजाला देख , आँख मिचकाया ,
नन्हे कदम , विश्वास से बढ़े ,
माँ के आँचल की छाँव में चले।

बचपन से यह ,माँ ने समझाया ,
देखो , बेटा ! आगे लोग बहुत मिलेंगे,
ऊपर से भले पर ,अंदर से बुरे भी होंगे ,
कुछ चमकेंगे , कुछ बेहद दमकेंगे ।

उजले कपड़े , बड़ी सी गाड़ी होगी ,
पैसों की माया से , हर ओर दीवाली होगी ,
पर तुम सोने चाँदी की चमक में ना खोना, हीरे से बनना ,
क्यूँकि हीरे की आभा ,सदा ही चमकीली होगी ।

मैंने सोचा मैं भी ,जल्दी से चमक जाऊँ,
सबके जैसा ही ,चमकीला हो जाऊँ ,
मगर सब एक से होंगे, तो क्या होगा ,
मज़ा अलग और खास होने का ना होगा ।

कुछ तो करना होगा , भीड़ से हट के ,
कभी खुद को घिस के ,तो कभी तराश के,
माँ और बाबा की सीख सदा याद आई ,
एक बिजली बन कर , मुझमें समाई ।

फिर देखो , आज मैं क्या बन गया ,
कभी कोयला सा था , आज संवर गया ,
साल दर साल ,और हर मौसम के लिए ,
बना मैं वैसा ,जैसा हीरा है सदा के लिए ।

@डॉ आराधना सिंह बुंदेला

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5 Comments on “डॉ आराधना सिंह बुंदेला। (विधा : कविता) (हीरा है सदा के लिए | सम्मान पत्र)

  1. सुन्दर रचना, हीरे सी चमकदार, कवयित्री को मेरी शुभकामनाएं ।

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