मेरे प्रिय!
मेरे नेत्रों में जो चमकती है।
तुम मेरी वो अक्षय प्रीत हो।
मेरे प्रिय!
तुम वो अक्षय चन्द्रमा हो।
जिसकी अक्षय चाँदनी मेरे नेत्रों को प्रीत सिखाती है।
मेरे प्रिय!
तुम अक्षय सूर्य हो मेरे।
जिसके ताप को छूकर ही में खिल पाती हूँ।
मेरे प्रिय!
तुम वो अक्षय आकाशगंगा हो।
जो असंख्य तारों को अपने में समाए रखती है।
मेरे प्रिय!
उन्हीं असंख्य तारों में, मैं भी हूँ,
तुम्हारा एक जाना-पहचाना तारा।
शांत,निश्चिन्त और अथाह प्रेम से भरी।
तुम्हारे अक्षय प्रेम का सुरक्षा कवच ओढ़े।
अनगिनत के बीच होकर भी।
मेरे प्रिय!
हाँ!मैं निश्चिन्त हूँ,क्योंकि जानती हूँ।
उन अनगिनत तारों में भी मुझे खोज लेते हो तुम।
अपने अक्षय चन्द्रमा की मुझ पर बरसती प्रीत की बूंदों में।
खुद को ढूंढ ही लेती हूँ मैं।
मेरे प्रिय!
तुम और मैं,मैं और तुम!
आज नहीं,कल नहीं,साथ हैं तबसे।
इस अक्षय ब्रह्मांड की एक-एक परत,
बनाई,सजाई थी तुमने,जबसे।
मेरे प्रिय!
मेरा होना तुमसे है,पर तुम्हारा मुझसे नहीं।
क्योंकि मैं अक्षय नहीं हूँ,तुम्हारी तरह।
मेरे प्रिय!
तुमसे मेरा होना,यूहीं होता रहे,बना रहे।
बार-बार,हर बार।
तुम्हारे अक्षय रूप का दरस।
क्या मुझे मिलता रहेगा यूँही,बार-बार??
हे मेरे प्रिय!
कहो ना,एक बार,”हाँ मिलेगा प्रिया।”
“हर बार,बार-बार।”
तुम्हें सौगन्ध हमारे “अक्षय” प्रेम की।
हे मेरे प्रिय!
अरुणा अभय शर्मा