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अरुणा अभय शर्मा । (विधा : कविता) (एक पैगाम पिता के नाम | सम्मान पत्र)

अनकही

बातें,भावनाएँ जो भीतर ही रह गईं

शब्द बन कर जो जीव्हा पर ना आईं।।

मन ही मन घूमती रही भीतर

मैं इतराती रही,थी जिन पर।।

फिर!

आया एक झंझावात

लग गए हृदय पर,अनगिनत आघात।।

वर्षों,वर्षों मैं सम्भल ना पाई

भीतर कहीं बन गई,एक गहरी खाई।।

कोई ना थाम सका हाथ

कोई लेप ना मिटा सका ये आघात।।

फिर!!

फिर इक दिन,भीतर से आवाज़ आई

तू रोती है!!क्यूँ??पगली बिटिया!!तू तो है मेरी परछाई।।

तुझमें साँस बन,धड़कन बन जी रहा हूँ मैं!!तू ये क्यूँ ना समझ पाई??

अश्रुधार फिर ऐसी फूटी

सारी वेदनाएँ, मुझसे फिर छूटी।।

जान लिया मैंने सब राज़

पापा ही करते हैं,मेरे सब काज।।

तब नहीं कहती थी

मन में ही रखती थी।।

अब नित कहती हूँ

तुमसे साँसें ले जीती हूँ।।

संग मेरे तुम यूँ ही रहना

पल-पल मेरे संग तुम जीना।।

सदा हँसूंगी,संग तुम्हारे

ताकि!

कभी ना भीगें नैन तुम्हारे।।

रक्तसम्बन्ध तो कहता है ये

बहन मैं और तुम भाई मेरे।।

लेकिन ममता तुम्हारी कहती

मात-पिता और भाई-बन्धु सब रिश्तों की नदियाँ,हैं

तुममें बहती।।

पिता दिवस की शुभकामनाएँ,तुमसे

माँ की ममता,वात्सल्य भी तुमसे।।

वचन अपना,निभाऊंगी अब

अश्रुधार में मेरे भैया, तुमको ना कभी डुबाऊँगी अब।।

अरुणा अभय शर्मा

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