रात में जिस गली का सन्नाटा पुरज़ोर था,
भोर होते ही वहाँ का दृश्य ही कुछ और था ।
निस्तब्ध निशा को जीतकर , निकली थी “भोर” अगले पड़ाव,
नवउमंगों से तरंगित, वह मंज़र ही कुछ और था।
पुलकित हुआ मन देख , वहाँ अल्हड़ बच्चों की मस्तियाँ ,
वो शोखियाँ , नादानियाँ , वो खिलखिलाती हस्तियाँ ।
हर्षित हुआ मन देख ,चेहरे चाँद से रोशन ,
न माथे पर कोई चिंता ,वह नवजीवन भरा यौवन ।
अँधेरी रात के अँधेरे ,जहाँ खत्म होते हैं ।
नवकिरणों के आगाज़ से , फिज़ा में रंग भरते हैं ।
चंद लम्हों में ही क्यूँ न हो , हसीं ख्वाबों को जी लें हम,
हो सामना जब हकीकत से ,तो फिर उलझन ,हज़ारों गम।
न जाने कल क्या होगा ,बेखबर है हर इंसान,
तो क्यूँ न जी लें इस पल को , है उत्सव जैसा यह समां ।
नवउमंग और नवतरंग का उफान , वहाँ पुरज़ोर था ,
“भोर” होते “उस गली का” दृश्य ही कुछ और था।
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