“समय”, तो गुज़रता है , गुज़रता ही चला जाएगा ,
अपनी ही रफ़्तार से, निरंतर यह बढ़ता जाएगा।
“समय” की दहलीज पर ,ठहरा हुआ है हर पल,
मानो मुट्ठी से रेत सा, यूँ ही फिसलता जाएगा ।
वह दौर ही कुछ और था ,यह दौर तो कुछ और है ,
बेफिक्र सा अपनी ही धुन में , यह वक्त चलता जाएगा।
रुक जा “समय”, कुछ कहूँ अपनी , कुछ सुनूँ तेरी,
पर हाथ से दामन छुड़ाकर , तूँ यूँही निकलता जाएगा ।
“समय” की फितरत तो इंसान ही के जैसी है ,
न रहता एक सा यह , सदा ही बदलता जाएगा।
हसरतें पाने के लिए ,”समय” से दौड़ तो लगाते हैं,
पर “कारवां ए ज़िंदगी” का, यह दौर न थम पाएगा ।
गुज़रा हुआ “समय” तो , फिर लौटकर न आएगा,
गर हौंसला हों बुलंद , तो गर्दिश- ऐ -वक्त भी बदल जाएगा।
“समय” की इस अविरल धारा में निरंतर बहती जा रही हूँ मैं,
मिट्टी का पुतला हूँ , ढलती जा रही हूँ मैं,
देखकर यह अविरल प्रवाह , सोचती हूँ अकसर,
या तो तैर जाऊँगी , या बह जाऊँगी मैं।
“समय” तो गुज़रता है , गुज़रता ही चला जाएगा,
अपनी ही रफ़्तार से निरंतर यह बढ़ता जाएगा।
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