मेरी ये कविता समर्पित है बाल श्रम को, और सब कुछ देख कर भी ना देखने की हमारी उदासीनता को।
🔅उस गली में 🔅
उस गली में
सुबह सवेरे
जब
हर दो कदम पर
बदल जाती है
अगरबत्तियों की गंध
होती है ठेलम ठेल
कचौड़ी के ठेलों पर
तब
फेंटतें हैं चाय
दो छोटे -छोटे हाथ
जब रिक्शों पर बेतरह लदे बच्चे
जाते हैं स्कूल
तब
निकलता है बगल से
एक रिक्शावाला
उटक-उटक कर
उम्र को छकाता
व्यर्थ ही
जब
मंदिर से लौटती औरतें
डलियों में लातीं हैं
फूल, धूप ,पानी
तभी निकलती हैं
छोटी -छोटी लड़कियां
चुन्नियां संभालतीं
बड़ी -बड़ी कोठियां
झाड़ने – पोंछने – सजाने
और ज्यों -ज्यों
चढ़ता है सूरज
रात सा अंधापन पसरने लगता है बाजारों में
तब
टूटी सड़क के मुहाने पे सोया
नंगा बच्चा जागता है
कि अाई है फिर से
नई सुबह
उस गली में
हमारी गली में
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